गुरुवार, फ़रवरी 24, 2011

हम ब्लोगिग करते क्यों है ?

साहित्य के समकक्ष ब्लोगिग को लाने के प्रयास हो ही रहे है . मुट्ठी भी तन चुकी है . लेकिन एक  सवाल .......
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खुद अपने से और अपनो से -


हम ब्लोगिग करते  क्यों है ?

मंगलवार, फ़रवरी 08, 2011

बसंत पंचमी पर ३०० वी पोस्ट दरबार की

आज बसंत  पंचमी पर जब मैंने यू ही अपनी लिखी पोस्टो को गिना तो पाया २९९ हो गई . लगभग तीन साल हो गए इस ब्लॉग के आसमां में उड़ते हुए .अनजाने में ही वहा पहुच गया था एक दो दिन देखा तो लगा अपने दिमाग में उठते और मडराते विचारों की सेफ लैंडिग के लिए यह प्लेटफार्म ही सबसे उम्दा है . एक ब्लॉग बनाया नाम रखा दरबार , और ठेलने लगे अपने विचार . लोग आये पढ़ा और टिप्पणी मिली . कुछ भी कह ले नए ब्लॉगर के लिए ओक्सिजन का काम करती है टिप्पणीयाँ .

खैर यह ३०० वी पोस्ट लिखना मेरे लिए तो बहुत बड़ी उपलब्धि है . मैंने कोई काम इतना निरंतरता से नही किया यहाँ तक की राजनीति भी .आज से १२ साल पहले एक सत्ता धारी पार्टी का युवा मोर्चा का जिला अध्यक्ष रहा . सत्ता  को अपने हिसाब से चलाया . लेकिन मज़ा नही आया सब छोड़छाड़ बैठ गए घर जबकि राजनैतिक परिवार से हूँ .अब भी एक पार्टी का प्रदेश पदाधिकारी हूँ मंच पर शोभा बढाता हूँ लेकिन ...................... . इसी तरह पारिवारिक चलता हुआ व्यापार जब मेरे हाथ में आया तो वह असमय गति को प्राप्त हो गया . लेकिन ईश्वर का वरदहस्त मेरे साथ हमेशा रहा है .मेरे बारे में यह कहावत सच ही है खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान .

यह सब तो हादसे है लेकिन ब्लॉग लिखना मेरे लिए एक वरदान साबित हुआ .कैसे ....................... ब्लॉग ने मुझे सिखाया निरंतरता के क्या फायदे है . और आज मैं नियमित पाठक हूँ और लेखक भी .लेकिन अभी भी बहुत खामिया है मुझ में , हो सकता है इस जन्म में ही वह दूर हो जाए . ब्लॉग  लेखन ने मुझे एक इंडडिपेंडेंट पहचान दी . आज दुनिया के कई कोने में लोग मुझे मेरे कारण से  जानते है . अपने परिवार से हटकर भी मेरी एक पहचान है . या कहें मैंने अपने परिवार में एक नया परिवार और जोड़ दिया .

ब्लॉग के कारण ही मैं फिर से अपना व्यापार शुरू कर रहा हूँ . उसी कारण मैं थोड़ा व्यस्त हूँ . समय आभाव है . लेकिन जल्द ही सब स्मूथ हो जाएगा . 

आप का आशीर्वाद ऐसे ही मिलता रहे तो एक दिन आपको फक्र होगा कि वह धीरू है जिसे हम जानते है . 

सोमवार, फ़रवरी 07, 2011

बाप की अस्थिया

यह कहानी नही एक हकीक़त है .

हमारे शहर के पास रामगंगा नाम की नदी बहती है . जो की गंगा में जा कर मिल जाती है . हमारे यहाँ उसे गंगा का ही दर्जा प्राप्त है .
पड़ोस के शहर के  एक सर्राफा   व्यापारी के सगे बाप मर गए . व्यापार में फसे रहने के कारण बाप की अस्थिया विसर्जन करने का वक्त नही मिल पा रहा था . एक दिन बरेली आना हो रहा था व्यापार के सिलसले में तो उसने सोचा लगे हाथो बाप की अस्थियो को भी गंगा में समर्पित कर दिया जाए . सो बाप की अस्थिया जो लाल कपडे में थी रखी और अपने सोने चांदी के  जेवर जो लाल थैले में थे भी साथ रख लिए . और अपने नौकर के साथ कार में चला .

बेटा बाप की अस्थिया ले कर चला जब पुल पर पहुंचा तभी किसी का फोन आ गया उसने नौकर से कहा लाल थैले को गंगा जी में खोल कर सिरा दो . नौकर ने आदेश का पालन किया . बिना देखे थैला खोल कर गंगा जी में थैले का सामान सिरा दिया तभी जब उसकी नज़र पड़ी तब तक थैले में भरा सोना चांदी गंगा जी की भेट चढ़ गया . कहा तो जाता माल कई लाख रूपये का था

और पिता की आत्मा  शायद यह देखकर मुस्काराई जरूर होंगी . बेटे को इतनी भी फुर्सत नही मिली कि वह कार से उतर कर विधी विधान से अस्थियो का विसर्जन कर देता .