रविवार, जनवरी 30, 2011

बापू को एक पत्र

आदरणीय बापू
सप्रेम चरण स्पर्श

बहुत सालो से आपको चिट्ठी लिखने का मन था . यह बता दू मैं आपका ५०% प्रशंसक हूँ और ५०% आलोचक .
 बापू अफ्रीका से जब आप आये थे तब भी आज़ादी का आन्दोलन उसी गति चल रहा था लेकिन सितारे आपके साथ थे और १८५७ से सतत लड़ने वालो को भूल कर सब आप पर फ़िदा हो गए . आप के कुशल नेतृत्व में आज़ादी की लड़ने वाली लडाइयां टेबिल पर आ गई .खैर बापू आपको चोरा चोरी की हिंसा तो दिखी लेकिन भगत सिंह और उनके साथियो की फासी हिंसा नही दिखी .

छोड़िये इन बातों को क्या फ़ायदा . बापू आज भी आप चर्चा में रहते हो आपका मीडिया मैनेजमेंट इतना अच्छा था कि आप को अमर कर गया . बापू एक बात माननी पड़ेगी आप को अमर करने में गोडसे की बहुत बड़ी भूमिका थी . अगर गोडसे आपके प्रति हिंसा का प्रयोग नही करता तो आपकी गति भी जिन्ना की तरह होती .

बापू कभी तो आप से मुलाक़ात होगी .तो होंगी बाते . लेकिन बापू अपने बारे में सच लिखना और वह सच लिखना जो आप ही जानते हो बहुत ही कठिन है या कहें असम्भव है . यही आपकी आदत आपकी बहादुरी को दर्शाती है .

बापू आज आपकी पुण्यतिथी पर आपको श्रधांजलि

आपका ही
धीरू


सेवा में,
महात्मा गांधी
जहाँ में जहा कही भी हो 

मंगलवार, जनवरी 25, 2011

गणतंत्र दिवस पर एक मांग -शहीदो के लिये एक हो स्मारक

गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर जब माहौल देश भक्ति से भरा नज़र आ रहा है बैठे ठाले एक बात कौंध रही है . कई सदियों की लड़ाई लड़ कर हम आज़ाद हुए . लाखो शहीद हुए तब मिली आज़ादी ना कि खडग बिना ढाल मिली यह आज़ादी . और उस आज़ादी को बरकरार रखने के लिए आज़ादी के बाद कई युद्धों में हमारे  हजारो वीर सैनिक अपनी जान की कुर्वानी दे चुके है .लेकिन आज तक हम उनका एक स्मारक ना बना सके . आज भी हम उस स्मारक  का इस्तेमाल कर रहे है जो विश्वयुद्ध में अंग्रेजो की तरफ से लड़कर मरे भारतीयों  का है



आखिर यह हमारी बीमार मानसिकता का परिचायक नही . हम अपने शहीदों को आज तक वह सम्मान ना दे सके जिसके वह हकदार थे . क्या एक स्मारक  उनका नही बन सकता जो आज़ादी के लिए सर्वस्य न्योछावर  कर गए . और जो आज़ादी को अक्षुण रखने के लिए शहीद हो गए . क्या राजपथ पर उनका हक़ नही . क्या यह अभिलाषा कभी पूरी नही होगी ? 

तो क्यों ना एक मुहीम चालू हो आज से एक स्मारक बने अपने लोगो का जो अपनो के लिए शहीद हो गए . अपने देश के लिए शहीद हो गए .  

गणतंत्र दिवस की शुभकामनाये (?)उस संविधान  की भी जय हो जिसमे ९४ पैबंद (अब तक)

बुधवार, जनवरी 19, 2011

इस को क्या कहेंगे ....................... ममता या बलिदान

अभी अभी मैं एक नामकरण संस्कार की दावत खा कर लौटा हूँ . यह कोई ख़ास बात नही और ना ही ब्लॉग में लिखने वाली बात है लेकिन मुझे लगा कि इस दावत के बारे में बताना ही चाहिए . इसलिए मैं बता रहा हूँ .

करीब दस साल पहले मेरे एक जानपहचान वाले ने अंतरजातीय विवाह किया परिवार से खिलाफ जाकर . नव दम्पति जो पढ़े लिखे थे जीवन यापन के लिए गाँव में एक छोटा सा स्कूल खोला . कठिन परिस्तिथियों का सामना करके अपना संघर्ष शुरू किया . सफलता मिलती रही और आज वह दो बड़े इंटर कालेज चला रहे है . समय या कहें मिलती सफलता और धन ने फिर से सब रूठे रिश्ते मिला दिये .

लेकिन एक कमी थी सन्तान नही थी . पता चला कि पत्नी माँ नही बन सकती . लेकिन पत्नी को माँ का सुख चाहिए था इसलिए उसका एक फैसला निश्चित  ही चौकाने वाला था .पत्नी ने अपने पति की  दूसरी शादी कराने  की ठान ली . कल्पना  कीजिये कैसे वह क्षण होंगे . फिर शादी हुई और फिर पुत्र ...................... उसी बच्चे का आज नामकरण संस्कार था . और जो कार्ड छपा था उसमे दोनों माओं का नाम था .

यही बात मैं आपको बताना चाहता था . माँ की ममता ही कहेंगे इसे या ..............................

रविवार, जनवरी 16, 2011

दाता के सखी

अलाव के इर्दगिर्द बैठे हाथ  तापते लोगो की निगाहें आती जाती कारो को घूर रही थी शायद कोई दाता का सखी आज आये और कम्बल दे जाए . कम्बल से ठंड मिटाने का जुगाड़ तो हो ही जाएगा . खुसरपुसर हो ही रही थी तभी एक कार रुकी सेठ जी के ड्रायवर ने डिक्की से कम्बल निकाल कर उन तापने वालो को दिये और कार आगे निकल गई .

तापने वालो के हाथ उन कंबलो को टटोलने में लगे थे . एक ने कहा .... साले कम्बल बाट रहे है या चद्दर क्या कीमत होगी ६० रुपेय  क्या भला होगा एक पौआ  भी तो नही मिलेगा इसे बेच  कर . और ठण्ड में एक पौआ  से भी क्या होगा इससे अच्छा  तो कल वाला था कम से कम कम्बल तो ढंग का था पौआ  के साथ साथ अंडे  का भी जुगाड़ हो गया था . चलो दान की बछिया के क्या दांत  गिने इसी से काम चलाओ . फिर कोई दाता की सखी आयेगी हमें ठंड से बचाने . साले कम्बल दान कर रहे है अगर पौआ बाटे तो इनकी दो चार पुश्ते तक सबाब मिलेगा . 

बुधवार, जनवरी 12, 2011

???

मैं भूल गया लिखने को
या लिखना क्या है भूल गया
रोज़ की आपाधापी में
मैं अपने को भी भूल गया

रोटी की नही मुझको
अब भूख की तलाश है                                
क्या खाऊ अब भी
सबसे बड़ा सवाल है

शुक्रवार, जनवरी 07, 2011

अनुराग जी से मिलना और खुश्दीप जी से ना मिलना

लगभग  एक  साल  हो गया पोस्ट लिखे हुए .सन  2010 की दिसंबर ३१ को आखिरी पोस्ट लिखी थी . इस बीच पोस्ट पढी बहुत और लिखी एक भी नही . साल के शुरुआती दिनों में कई ब्लोगरों से मिलने का योग बना लेकिन समय अभाव में मिलना ना हो पाया . हमारे यहाँ एक कहावत है खरदा चलता नही तो नही चलता लेकिन चलता है तो सब मेढ़े तोड़ देता है . खरदा मतलब गधा .

कुछ दिन पहले समय ही समय था और अब समय बहुत कम पड़ गया मेरे लिए . एक जनवरी को मेरे पास खुशदीप जी का फोन आया कि वह स्वर्ग की साल में आ रहे है और मो सम कौन वाले संजय जी से पता चला अनुराग जी स्मार्ट इन्डियन  इंडिया में ही है और बरेली की ओर है . दोनों से मिलने की बात पक्की हो गई . लेकिन ........ खुशदीप जी बरेली में और हमें दिल्ली जाना पड़ गया . फोन पर ही मुलाक़ात हुई हाय हेलो करके हम दिल्ली चले गए . जान कर संतोष था अनुराग जी से मुलाक़ात हो ही जायेगी.

लेकिन समय अपनी चाल पर था हमें दिल्ली में एक दिन ज्यादा लग गया . जल्दी जल्दी में अनुराग जी से संपर्क किया तो पता चला वह एक दिन और बरेली में रहेंगे लेकिन मुझे उस दिन लखनऊ में रहना था . मिलने की उम्मीद धूमिल हो गई . मैं निराश अपने बदायूं स्थित प्रतिष्ठान  में बैठा था . अचानक मैंने अनुराग जी को फोन किया तो पता चला वह बदायूं आ रहे है और अपने पुश्तैनी गाँव को देखने जा रहे है . रास्ते में मैं मौजूद था अब मुलाक़ात पक्की थी . थोड़ी देर में अनुराग जी वही पहुच गए मुझसे मिलने साथ में उनके पिता जी और भाई साहब भी थे . कुछ पलो की मुलाक़ात हुई समय कम था और उन्हें अपने गाँव भी जाना था . बदायूं में मेरी हालत चमगादड़ सी रहती है और मेरे मेहमान भी उलटे ही लटके रहे . मैं अनुराग जी और उनके पिता जी व भाई का सत्कार भी ठीक तरह से ना कर सका . मेरा दुर्भाग्य है . लेकिन वह लम्हे यादगार रहेंगे हमेशा .